आशूरा का उत्सव मनाने या उसमें मातम करने का हुक्म
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आशूरा का उत्सव मनाने या उसमें मातम करने का हुक्म
حكم الاحتفال بعاشوراء أو إقامة المآتم فيه
] fgUnh & Hindi &[ هندي
और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।
محمد صالح المنجد
अनुवाद : साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर
समायोजन : साइट इस्लाम हाउस
ترجمة: موقع الإسلام سؤال وجواب
تنسيق: موقع islamhouse
2012 - 1433
आशूरा का उत्सव मनाने या उसमें मातम करने का हुक्म
आशूरा के दिन लोगों के सुर्मा लगाने, स्नान करने, मेंहदी लगाने, हाथ मिलाने, अनाज पकाने, हर्ष व उल्लास का प्रदर्शन करने इत्यादि का क्या हुक्म है ... क्या इस बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कोई सहीह हदीस आयी है ? या नहीं ? और यदि इन में से किसी चीज़ के बारे में कोई सहीह हदीस नहीं वर्णित है तो क्या इसका करना बिद्अत है या नहीं ? तथा दूसरा समूह जो कुछ मातम और शोक करता, प्यासा रहता, और इनके अलावा, रोना, चींखना, गरीबान फाड़ना आदि करता है, क्या उसका कोई आधार है ? या नहीं है ?
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।
शैखुल इस्लाम (इब्ने तैमिय्या) रहिमहुल्लाह से यही प्रश्न किया गया तो उन्हों ने इस प्रकार उत्तर दिया : हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है जो सर्व संसार का पालनहार है। इन में से किसी चीज़ के बारे में भी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से या आपके सहाबा से कोई सहीह हदीस वर्णित नहीं है। तथा मुसलमानों के इमामों में से किसी एक ने भी, न तो अईम्मा-ए-अरबआ (चारों इमामों) और न ही उनके अलावा किसी ने, इसको अच्छा नहीं समझा है। तथा विश्वसनीय पुस्तकों के लेखकों ने इस बारे में कोई चीज़ रिवायत नहीं किया है, न तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से, न सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से और न ही ताबेईन से, न कोई सहीह हदीस और न ही कोई ज़ईफ हदीस, न तो सहीह हदीस की किताबों में, न सुनन में और न ही मसानीद में, तथा इन हदीसों में से कोई भी चीज़ क़ुरूने मुफज़्ज़ला – अर्थात इस्लाम की प्राथमिक तीन शताब्दियों या पीढ़ियों - में परिचित नहीं थी। किंतु कुछ बाद में आने वाले लोगों ने इस विषय में कई हदीसें रिवायत की हैं, उदाहरण के तौर पर उन्हों ने रिवायत किया है कि जिसने आशूरा के दिन सुर्मा लगाया उस वर्ष उसकी आंख में जलन नहीं होगी, और जिस व्यक्ति ने आशूरा के दिन स्नान किया वह उस वर्ष बीमार नहीं होगा, और इसी के समान अन्य हदीसें। तथा उन्हों ने आशूरा के दिन की नमाज़ की फज़ीलतें रिवायत की हैं, तथा उन्हों ने वर्णन किया है कि आशूरा के दिन ही आदम अलैहिस्सलाम की तौबा हुई, जूदी पहाड़ पर कश्ती ठहरी, यूसुफ अलैहिस्सलाम याक़ूब अलैहिस्सलाम के पास लौटाये गये, इब्राहीम अलैहिस्सलाम को आग से नजात मिली, तथा ज़बीह अर्थात इस्माइल अलैहिस्सलाम को मेंढे के द्वारा छुड़ाया गया इत्यादि। तथा उन लोगों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर झूठ गढ़ी हुई एक मौज़ू -मनगढ़ंत- हदीस में वर्णन किया है कि : "“जिस व्यक्ति ने आशूरा के दिन अपने परिवार पर खर्च करने में विस्तार से काम लिया तो अल्लाह तआला उस पर पूरे साल विस्तार करेगा।""
. . . “फिर शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह ने दो गुमराह -पथभ्रष्ट- संप्रदायों का उल्लेख किया है जो ईराक़ की धरती कूफा में थे, वे आशूरा को अपनी बिदअतों के लिए ईद (त्योहार) बनाते थे।" एक संप्रदाय राफिज़ा का था जो अहले बैत से दोस्ती और महब्बत का प्रदर्शन करते थे, हालांकि अंदर से वे या तो ज़िंदीक़ व मुलहिद (नास्तिक) थे, या जाहिल -गंवार- और इच्छा के पुजारी थे। तथा एक संप्रदाय नासिबियों का था जो अली रज़ियल्लाहु अन्हु और उनके साथियों से द्वेष रखते थे जिसका कारण फित्ने के दौरान घटित होने वाली लड़ाई थी। सहीह मुस्लिम में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : "“सक़ीफ में एक झूठा और हलाक (सर्वनाश) करने वाला पैदा होगा।"" चुनांचि वह झूठा मुख्तार बिन अबू उबैद अस्सक़फी है, जो अहले बैत से दोस्ती और उनकी हिमायत का प्रदर्शन करता था, तथा उसने ईराक़ के अमीर उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद को क़त्ल कर दिया जिसने उस फौजी टुकड़ी को भेजा था जिसने हुसैन बिन अली रज़ियल्लाहु अन्हु को क़त्ल कर दिया था। फिर उसने झूठ का प्रदर्शन किया, और नबी होने का दावा किया, और यह कि जिब्रील अलैहिस्सलाम उसके उपर उतरते हैं, यहाँ तक कि लोगों ने इब्ने उमर और इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से कहा। लोगों ने उन दोनों में से एक से कहा : मुख्तार बिन उबैद का भ्रम है कि उसके ऊपर वह्य (प्रकाशना) उतरती है, तो उन्हों ने कहा कि उसने सच्च कहा, अल्लाह तआला का फरमान है :
﴿هَلْ أُنَبِّئُكُمْ عَلَى مَنْ تَنَزَّلُ الشَّيَاطِينُ تَنَزَّلُ عَلَى كُلِّ أَفَّاكٍ أَثِيمٍ﴾ [سورة الشعراء: 221- 222].
"क्या मैं तुम्हें सही सही बतलाऊँ कि शैतान किस पर उतरते हैं ? वे हर झूठे और पापी पर उतरते हैं।" (सूरतुश शु-अराः 221 – 222)"
तथा उन्हों ने दूसरे से कहा : मुख्तार का ख्याल यह है कि उसकी ओर वह्य (प्रकाशना) की जाती है, तो उन्हों ने कहा कि उसने सच्च कहा :
﴿وَإِنَّ الشَّيَاطِينَ لَيُوحُونَ إلَى أَوْلِيَائِهِمْ لِيُجَادِلُوكُمْ﴾ [سورة الأنعام: 121].
“"निःसंदेह शैतान अपने दोस्तों की ओर वह्य करते हैं ताकि वे तुम से बिना ज्ञान के बहस करें।" (सूरतुल अन्आमः 121)"
जहाँ तक मुबीर (सर्वनाशकारी) का संबंध है तो वह हज्जाज बिन यूसुफ अस्सक़फी है, वह अली रज़ियल्लाहु अन्हु और उनके साथियों से अलग थलग था, अतः यह नसिबयों में से था, और पहला रवाफिज़ में से था, और राफिज़ी सबसे अधिक झूठा और झूठ गढ़ने वाला, तथा दीन में इल्हाद (नास्तिकता) वाला था ; क्योंकि उसने नबी (ईश्दूत) होने का दावा किया था।
तथा कूफा शहर में इन दोनों संप्रदायों के बीच फित्ने (उपद्रव) और लड़ाईयाँ होती थीं। फिर जब आशूरा के दिन हुसैन बिन अली रज़ियल्लाहु अन्हुमा क़त्ल कर दिए गए, उन्हें अत्याचारी अन्यायी संप्रदाय ने क़त्ल किया था, और अल्लाह तआला ने हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु को शहादत से सम्मानित किया, जैसाकि उनके घराने में से कुछ लोगों को उस से सम्मानित किया था। हमज़ा और जाफर, तथा उनके पिता अली रिज़यल्लाहु अन्हुम और उनके अलावा अन्य लोगों को इस से सम्मानित किया। आपकी शहादत उन चीज़ों में से थी जिसके द्वारा अल्लाह तआला ने आपके पद को ऊँचा कर दिया और आपके स्थान को बुलंद कर दिया। क्योंकि वह और उनके भाई हसन दोनों जन्नत के युवाओं के सरदार हैं, और ऊँचे पद मुसीबतों और परीक्षाओं के द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं, जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (जब आपसे पूछा गया: सब से अधिक कठोर परीक्षा और आज़माइश किन लोगों की होती है ? तो आप ने फरमाया: अंबिया (पैगंबरों) की, फिर नेक और सदाचारी लोगों की, फिर सबसे अच्छे लोगों की, फिर उनसे कमतर लोगों की। आदमी को उसके दीन (धर्मनिष्ठा) के अनुसार परीक्षा में डाला जाता है, यदि उसके दीन में मज़बूती है तो उसकी परीक्षा में वृद्धि कर दी जाती है और यदि उसके दीन में नरमी है तो उसकी परीक्षा में कमी कर दी जाती है। तथा मोमिन की निरंतर परीक्षा होती रहती है यहाँ तक कि वह धरती पर इस हालत में चलता फिरता है कि उसके ऊपर कोई पाप नहीं होता है।) इस हदीस को तिर्मिज़ी इत्यादि ने रिवायत किया है।
हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुमा को अल्लाह की तरफ से महान पद प्राप्त हो चुका था, और उन्हें किसी ऐसी प्रीक्षा का सामना नहीं करना पड़ा था जिस से उनके पुनीत पूर्वज पीड़ित हो चुके थे। क्योंकि वे दोनों इस्लाम के गौरव में जन्में थे, और गौरव तथा सम्मान में उनका पालन पोषण हुआ था, मुसलमान लोग उनका आदर और सम्मान करते थे, जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का स्वर्गवास हुआ तो वे दोनों अभी पूरी तरह समझबूझ और स्वविवेक (परिपक्वता) की अवस्था को भी नहीं पहुँचे थे, अतः उन दोनों पर अल्लाह तआला की यह अनुकम्पा और कृपा हुई कि उसने उन दोनों को ऐसी चीज़ के द्वारा परीक्षा में डाला जो उन्हें उनके अहले बैत (परिवारजनों) से मिला दे, जिस प्रकार कि उनसे श्रेष्ठतर लोगों की प्रीक्षा की गयी थी। चुनाँचि अली बिन अबू तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु उने दोनों से अफज़ल और श्रेष्ठतर थे, और उन्हें शहादत की हालत में क़त्ल कर दिया गया था। हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु के क़त्ल से लोगों के बीच फित्ने (उपद्रव) फूट पड़े। जिस तरह कि उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु का क़त्न लोगों के बीच फित्नों के जन्म लेने के महान कारणों में से था, और उसी के कारण आज तक उम्मत विभाजन और मतभेद से पीड़ित है। इसीलिए हदीस में आया है कि "तीन चीज़ों से जो व्यक्ति नजात पा गया वह वास्तव में नजात पाने वाला है: मेरी मौत, धैर्य करने वाले खलीफा का क़त्ल और दज्जाल।" . .
(फिर शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह ने हसन रज़ियल्लाहु अन्हु की जीवनी और उनके न्याय के कुछ अंशों का उल्लेख किया है यहाँ तक कि उन्हों ने फरमाया: फिर उनकी मृत्यु हो गयी और वह अल्लाह की करामत और उसकी प्रसन्नता के हवाले हो गये, और कई समूह उठखड़ हुए और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु को पत्र लिखा और उन्हें सहयोग और मदद का वादा दिया यदि वह मामले की बागडोर संभालते हैं। हालांकि वे लोग इसके पात्र नहीं थे। बल्कि जब हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने चचेरे भाई को उनके पास भेजा तो उन लोगों ने उनके साथ विश्वासघात किया, और उनके साथ किए हुए प्रतिज्ञा को भंग कर दिया, तथा उनके विरूध उसकी सहायता की जिस से उनकी रक्षा करने और उनके साथ मिलकर उस से लड़ाई करने का वादा किया था। हुसैन रज़ियल्लाहु उन्हु के शुभचिंतकों और उनसे महब्बत रखने वालों, जैसे कि इब्ने अब्बास और इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा इत्यादि, ने उनको सलाह दिया कि वह उन लोगों के पास न जायें और उनकी बात स्वीकार न करें, तथा उनका विचार यह था कि उनके उन लोगों के पास जाने में कोई मसलिहत (हित) नहीं है, और उस से कोई प्रसन्नतापूर्ण परिणाम नहीं निकलेगा। और वास्तव में वैसा ही मामला घटित हुआ जैसा उन्हों ने कहा था, और अल्लाह तआला के हुक्म का घटित होना आवश्यक है। जब हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु रवाना हुए और देखा कि मामला बदल चुका है, तो आप ने उनसे मांग किया वे उन्हें छोड़ दें कि वह वापस लौट जायें, या किसी सीमा पर चले जायें, या अपने चचेरे भाई यज़ीद से जा मिलें। पर उन्हों ने उनकी इनमें से कोई बात भी नहीं स्वीकार की यहाँ तक कि वइ बंदी बना लिये जायें और उन्हों ने आपसे लड़ाई की तो आप ने भी उनसे लड़ाई की, तो उन्हों ने आपको और आपके साथ एक समूह को मज़लूमियत की हालत में क़त्ल कर दिया और अल्लाह तआला ने आपको शहादत से सम्मानित किया और आपको आपके पवित्र और पुनीत परिवारजनों से मिला दिया। तथा उसके द्वारा आप पर अत्याचार और ज़ुल्म करने वालों को अपमानित कर दिया, और इसने लोगों के बीच बुराई को जन्म दिया। चुनाँचि एक संप्रदाय जाहिल और ज़ालिम बन गया: या तो वह अधर्मी और मुनाफिक़ (पाखंडी) है, या गुमराह और पथभ्रष्ट है, जो हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु और आपके अहले बैत से दोस्ती का प्रदर्शन करता है, आशूरा के दिन को सोग, मातम, शोक और नौहा का दिन बनाता है, और उसमें जाहिलियत के प्रतीक जैसे कि गाल पीटना, गरीबान फाड़ना और जाहिलियत के सांत्वना के द्वारा सांत्वना देने का प्रदर्शन करता है। जबकि अल्लाह और उसके पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुसीबत में -यदि वह नयी है- जिस चीज़ का आदेश दिया है वह मात्र धैर्य करना, अज्र व सवाब (पुण्य) की आशा रखना और "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" (निःसंदेह हम अल्लाह के लिए हैं और उसी की ओर लौटने वाले हैं) पढ़ना है, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है:
﴿وَبَشِّرْ الصَّابِرِينَ الَّذِينَ إذَا أَصَابَتْهُمْ مُصِيبَةٌ قَالُوا إنَّا لِلهِ وَإِنَّا إلَيْهِ رَاجِعُونَ أُولَئِكَ عَلَيْهِمْ صَلَوَاتٌ مِنْ رَبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ وَأُولَئِكَ هُمْ الْمُهْتَدُونَ﴾ [سورة البقرة: 155- 157].
"धैर्य करने वालों को शुभसूचना दे दीजिए, वे लोग जिन्हें जब कोई मुसीबत (बिपदा) पहुँचती है तो कहते हैं कि: बेशक हम अल्लाह के लिए हैं और उसी की ओर लौटने वाले हैं। इन्हीं लोगों के लिए उनके पालनहार की ओर से बरकतें और रहमत (दया और शांति) हैं, और यही लोग हिदायत प्राप्त हैं।" (सूरतुल बक़रा : 155 – 157)
तथा सहीह हदीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित है कि आप ने फरमाया: "वह हम में से नहीं है जो गाल पीटे, गरीबान फाड़े और जाहिलियत की पुकार लगाये।"
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: मैं मुसीबत के समय आवाज़ बुलंद करने वाली (चींखने चिल्लाने वाली), मुसीबत के समय अपना सिर मुंडाने वाली और मुसीबत के समय अपने कपड़े फाड़ने वाली औरत से बरी हूँ।"
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "नौहा करने वाली महिला यदि अपनी मृत्यु से पूर्व तौबा नहीं करती है तो उसे क़ियामत के दिन इस हाल में उठाया जायेगा कि उसके ऊपर कोलतार का कपड़ा और खुजली की क़मीस होगी।"
तथा मुसनद अहमद में फातिमा पुत्री हुसैन से वर्णित है वह अपने पिता हुसैन से और वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं कि आप ने फरमाया: "जो भी आदमी किसी मुसीबत से पीड़ित होता है, फिर वह अपनी मुसीबत को याद करता है यद्यपि वह पुरानी ही हो, तो उस पर "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" (बेशक हम अल्लाह के लिए हैं और उसी की ओर लौटने वाले हैं) पढ़ता है तो अल्लाह तआला उसे उस दिन के अज्र व सवाब के समान अज्र देता है जिस दिन उसे मुसीबत पहुँची थी।"
और यह अल्लाह की तरफ से मोमिनों का सम्मान है, यदि हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु वगैरा की मुसीबत लंबी अवधि बीत जाने के बाद भी याद की जाये तो मुसलमान के लिए उचित यह है कि वह उसमें "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" पढ़े, जैसाकि अल्लाह और उसके पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आदेश दिया है; ताकि उसे उस मुसीबत के घटित होने के दिन उस से पीड़ित होने वाले के समान अज्र व सवाब दिया जाये। तथा जब अल्लाह तआला ने मुसीबत के नयी होने के समय सब्र करने और अज्र व सवाब की आशा रखने का आदेश दिया है, तो फिर उस पर लंबा ज़माना बीतने की अवस्था के बारे में क्या हुक्म होगा।
चुनाँचि वही कुछ घटित हुआ जो शैतान ने गुमराह और पथभ्रष्ट लोगों के लिए सँवार कर पेश किया था कि उन्हों ने आशूरा के दिन को मातम और शोक का अवसर बना लिया, जिसमें वे शोक मनाते और मातम करते, शोक व गम की कवितायें पढ़ते और ऐसी खबरें ब्यान करते हैं जिनमें बहुत अधिक झूठ होता है, उनमें मात्र गम को नया करने, तअस्सुब (धर्मोन्मता), दुश्मनी, कपट और युद्धस्थिति पैदा करने, मुसलमानों के बीच फित्ने (उपद्रव) भड़काने, और इसके द्वारा सर्वप्रथम मुसलमानों को बुरा भला कहने का रास्ता तलाश करने, दुनिया में झूठ और फित्ने की अधिकता के अलावा कोई सच्चाई नहीं होती है। तथा इस्लाम के संप्रदाय इस गुराह और पथभ्रष्ट संप्रदाय से अधिक झूठ बोलने वाला, उपद्रव पैदा करने वाला और मुसलमानों के विरूध काफिरों की मदद करने वाला कोई संप्रदाय नहीं जानते हैं, क्योंकि वे इस्लाम से निकल जाने वाले खवारिज से भी भुरे और दुष्ट हैं। उन लोगों (खवारिज) के बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है:
"वे इस्लाम के अनुयायियों की हत्या करेंगे, और मूर्तियों की पूजा करने वालों को छोड़ देंगे।"
और ये लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अहले बैत और आपकी मोमिन उम्मत के विरूध यहूदियों, ईसाईयों और अनेकेश्वरवादियों की मदद और सहयोग करते हैं जिस प्रकार कि उन्हों ने तुर्क और तातार में से मुशरिकों की उस चीज़ पर सहयोग किया जो कुछ उन्हों ने बग़दाद वगैरह में नबुव्वत के घराने वालों और पैगंबरी के खान अब्बास की संतान, और उनके अलावा अन्य अहले बैत और मुसलमानों के साथ - हत्या करने, बंदी बनाने और घरों को विध्वंस करने का - व्यवहार किया। मुसलमानों पर इन लोगों के नुकसान और बुराई को एक वाक्पटु और सुवक्ता व्यक्ति नहीं गिन सकता। चुनाँचि कुछ लोगों ने इनका विरोध किया जो कि या तो हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु और उनके घराने वालों से तअस्सुब रखने वाले नासिबी लोग हैं, और या तो जाहिलों में से हैं जिन्हों ने दुष्ट का विरोध दुष्ट से, झूठ का झूठ से, बुराई का बुराई से और बिद्अत का बिद्अत से किया। इस प्रकार उन्हों ने आशूरा के दिन हर्ष व उल्लास के प्रतीकों के बारे में आसार (हदीसें) गढ़ लिए जैसे कि सुर्मा और मेंहदी लगाना, परिवार पर खर्च में विस्तार करना, सामान्य आदत से हटकर खाने पकाना और इसी के समान अन्य चीज़ें जो त्योहारों और अवसरों पर की जाती हैं। इस तरह ये लोग आशूरा के दिन को त्योहारों और पर्वों के अवसरों के समान एक अवसर बनाते हैं। और वो लोग इसे मातम का अवसर बनाते हैं जिसमें शोक मनाते और मातम करते हैं। जबकि दोनों संप्रदाय गलती पर हैं और सुन्नत से हटे हुए हैं, यद्यपि वो लोग (अर्थात राफिज़ा) सबसे दुष्ट उद्देश्य वाले, सबसे बड़े जाहिल और सबसे स्पष्ट ज़ुल्म करने वाले हैं, किंतु अल्लाह तआला ने न्याय और एहसान व भलाई करने का आदेश दिया है।
तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है:
"तुम में से जो आदमी मेरे बाद ज़िन्दा रहेगा वह बहुत अधिक इख़्तिलाफ (मतभेद) देखेगा, अतः तुम मेरी सुन्नत और मेरे बाद हिदायत याफ्ता (पथप्रदर्शित) ख़ुलफा-ए-राशिदीन की सुन्नत को दृढ़ता से थाम लो और उसे दाँतों से जकड़ लो। तथा धर्म में नयी ईजाद कर ली गयी चीज़ों (यानी बिद्अतों) से बचो, क्योंकि हर बिद्अत गुमराही (पथभ्रष्टता) है।" (अहमद, तिर्मिज़ी, इब्ने माजा, दारमी, हाकिम, इब्ने हिब्बान, तथा अल्बानी ने किताबुस्सुन्नह की तखरीज में इस सहीह कहा है)
तथा अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम या आप के खुलफाये राशिदीन ने आशूरा के दिन इन में से कोई भी चीज़ मस्नून नहीं ठहराया है, न तो शोक व गम के प्रतीकों को, और न ही हर्ष व उल्लास के प्रतीकों को। (किंतु आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब मदीना तश्रीफ लाये तो यहूद को आशूरा के दिन रोज़ा रखते हुए पाया। इस पर आप सल्लल्लाहु ने पूछा: यह क्या है ? तो उन्हों ने उत्तर दिया : यह ऐसा दिन है जिसमें अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम को डूबने से बचाया। अतः हम उस दिन रोज़ा रखते हैं। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: हम मूसा अलैहिस्सलाम (की पैरवी) के तुम से अधिक योग्य हैं। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस का रोज़ा रखा और उसका रोज़ा रखने का आदेश दिया।"
तथा क़ुरैश भी जाहिलियत के समय में उसका सम्मान करते थे। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को जिस दिन का रोज़ा रखने का आदेश दिया था वह एक ही दिन था, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रबीउल अव्वल के महीने में मदीना आये, फिर जब अगला साल आया तो आप ने आशूरा (अर्थात दसवें मुहर्रम) का रोज़ा रखा और उसका रोज़ा रखने का आदेश दिया। फिर उसी साल रमज़ान के महीने का रोज़ा फर्ज़ (अनिवार्य) कर दिया गया, तो उस से आशूरा का रोज़ा मंसूख (निरस्त) हो गया। उलमा (धर्म ज्ञानियों) ने इस बारे में मतभेद किया है कि : क्या उस दिन का रोज़ा वाजिब (अनिवार्य) था ? या मुस्तहब (स्वैच्छिक) था ? इस बारे में दो प्रसिद्ध कथन हैं जिनमें सबसे शुद्ध यह है कि वह वाजिब था। फिर इसके बाद जो व्यक्ति उसका रोज़ा रखता था वह स्वैच्छिक रूप से उसका रोज़ा रखत था, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आम (सामान्य) लोगों को उस दिन का रोज़ा रखने का आदेश नहीं दिया था, बल्कि आप फरमाते थे : "यह आशूरा का दिन है और मैं इस में रोज़ा से हूँ, अतः जिसकी इच्छा हो वह रोज़ा रखे।" तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "आशूरा का रोज़ा एक साल के गुनाहों को मिटा देता है, और अरफा के दिन का रोज़ा दो साल के गुनाहों को मिटा देता है।" "फिर जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आयु (जीवन) का अंतिम समय था और आप को इस बात की सूचना मिली कि यहूद उस दिन को ईद (त्योहार) मानते हैं, तो आप ने फरमाया: यदि मैं अगले वर्ष तक जीवित रहा तो नौ मुहर्रम का रोज़ा रखूँगा।" ताकि इसके द्वारा आप यहूद का विरोध करें, और उस दिन को ईद बनाने में उनकी समानता न अपनायें।
सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम और उलमा (धर्म ज्ञानियों) में से कुछ लोग ऐसे भी थे जो आशूरा के दिन का रोज़ा नहीं रखते थे और न तो उसके रोज़ा को मुस्तहब ही समझते थे, बल्कि अकेले आशूरा (दसवें मुहर्रम) का रोज़ा रखने को मक्रूह (अनेच्छिक) समझते थे, जैसा कि कूफियों के एक दल के बारे में इस मत का वर्णन किया गया है। तथा कुछ उलमा इसके रोज़े को मुस्तहब समझते थे।
तथा उसका रोज़ा रखने वाले के लिए शुद्ध बात यह है कि वह उसके ( अर्थात दसवें मुहर्रम के) साथ नौ मुहर्रम का भी रोज़ा रखे ; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अंतिम आदेश यही था आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस कथन के आधार पर कि: "यदि मैं अगले साल तक जीवित रहा तो दसवें मुहर्रम के साथ नौ मुहर्रम का रोज़ा रखूँगा।" जैसाकि हदीस की कुछ सनदों में इसकी व्याख्या वर्णित है। अतः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसी बात को मस्नून और धर्मसंगत क़रार दिया है।
जहाँ तक इसके अलावा अन्य बातों का संबंध है: उदाहरण के तौर पर सामान्य आदत से हट कर खाने बनाना, चाहे वे दाने (अनाज) हों या अनाज के अतिरिक्त, या नये कपड़े बनवाना और खर्च में विस्तार करना, या उसी दिन साल की आवश्यकताओं को खरीदना, या कोई विशिष्ट इबादत करना जैसे उसी दिन के साथ विशिष्ट कोई नमाज़ पढ़ना, या जानवर की क़ुर्बानी करना, या ईदुल अज़्हा की क़ुरबानी के गोश्त को जमा करके रखना ताकि उनके द्वारा दाने पकाये जायें, या सुर्मा और मेंहदी लगाना, या स्नाना करना, मुसाफहा करना, या एक दूसरे की ज़ियारत करना, या मस्जिदों और मज़ारों की ज़ियारत करना, और इसी जैसी अन्य चीज़ें - तो ये घृणित बिद्अतों (नवाचारों) में से हैं जिन्हें अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम या आपके खुलफाये राशिदीन ने मस्नून (धर्मसंगत) नहीं ठहराया है, तथा मुसलमानों के इमामों (धर्म गुरूओं) में से किसी एक ने भी इसे मुस्तहब (ऐच्छिक) नहीं समझा है, न इमाम मालिक ने, न इमाम सौरी ने, न इमाम लैस बिन सअद ने, न इमाम अबू हनीफा ने, न इमाम औज़ाई ने, न इमाम शाफेई ने, न इमाम अहमद बिन हंबल ने, न इमाम इसहाक़ बिन राहवैह ने, और न ही इन लोगों के समान मुसलमानों के इमामों और उलमाओं (धर्म ज्ञानियों) में से किसी ने . . . जबकि इस्लाम धर्म दो मूल तत्वों पर आधारित है ; एक यह कि हम केवल अल्लाह तआला की उपासना और पूजा करें, दूसरा यह कि हम उसकी पूजा उस चीज़ के द्वारा करें जिसे उसने धर्मसंगत ठहराया है, बिद्अतों (नवाचारों और अधार्मिक चीज़ों) के द्वारा उसकी पूजा और उपासना न करें। अल्लाह तआला का फरमान है:
﴿فَمَنْ كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيَعْمَلْ عَمَلا صَالِحًا وَلا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا﴾ [سورة الكهف: 110].
"अतः जिस व्यक्ति को आरज़ू हो कि वह अपने पालनहार के सामने हाज़िर होगा तो उसे अच्छे काम करने चाहिए और वह अपने पालनहार की इबादत में किसी को शरीक न करे।" (सूरतुल कहफ : 110)
अमल सालेह (नेक और अच्छा काम) वह है जिसे अल्लाह और उसके पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पसंद किया है, और वह काम मश्रू (धर्मसंगत) और मस्नून (सुन्नत के मुताबिक़) है। इसीलिए उमर बिन अल खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु अपनी दुआ में कहते थे: ऐ अल्लाह ! तू मेरे सब अमल को सालेह बना, और उसे अपने चेहरे के लिए खालिस (विशुद्ध) करदे, और उसमें किसी अन्य के लिए कोई चीज़ न बना।
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह के कलाम से सारांशित रूप से समाप्त हुआ। अल फतावा अल कुब्रा: भाग: 5.
और अल्लाह तआला ही सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करने वाला है।
शैख मुहम्मद सालेह अल मुनज्जिद